15.3.10

संपादक का पत्र, लेखक के नाम

श्री गांधार चंद ‘फूंक’
आपकी रचनाएं आपको वापस भेजी जा रही हैं। खेद है कि इस बार भी हम आपकी प्रतिभा का उपयोग नहीं कर पाऐंगे। हमारे रिकार्ड के अनुसार आपकी इस वर्ष लौटाई जाने वाली ये 211वीं रचना है। आपको निम्‍न सुझाव भी दिए जाते है।
कृपया अपनी रचनाओं के साथ यह लिखने की जरूरत न समझें कि रचना आपकी अपनी लिखी हुई है। आपकी रचना स्‍वयं अपने मुंह से बोलकर बता देती है कि आप ही इसके जन्‍मदाता हो सकते हैं। दूसरे, अब हमारा पूरा स्‍टाफ आपकी हैंडराइटिंग को पहचानने लगा है। सो आप सिर्फ रचना भेजें, नाम के बिना भी हम स्‍वयं जान लेंगे कि ये रचना आपकी ही हो सकती है।
आपको यह भी लिखने की जरूरत नहीं है कि ये रचना अप्रकाशित है। आपके लिखे बिना भी हम पूरे विश्‍वास से कह सकते हैं कि रचना कहीं भी प्रकाशित नहीं हुई है। संभवत: जिन दूसरे अखबारों में आप रचनाऐं भेजते हो, वे भी जानते होंगे कि ये रचना अप्रकाशित ही है। हमें तो ये भी विश्‍वास है कि आपकी रचनाऐं ऐसी हैं जो आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन कर सकती हैं, अत: हम उनके चरित्र के बारे में कोई संदेह नहीं कर सकते।
सो, आपको अपनी रचनाओं के साथ कोई पत्र भेजने की आवश्‍यकता ही नहीं है। वस्‍तुत: देखा जाऐ तो आपको रचनाऐं भेजने की भी आवश्‍यकता नहीं है। आपकी इतनी रचनाऐं पढ़ने के बाद हम आपके विचारों को अच्‍छे से जान गए हैं। आपका दुर्भाग्‍य है कि आप जिस शैली में रचना लिखते हैं, वो अभी इजाद ही नहीं हुई है। लगता है आप इस दुनियां में सौ सवा सौ साल पहले आ गए। अभी यहां के लोग इस तरह की रचनाओं को समझने के लायक हुए ही नहीं हैं और आपने अवतार ले लिया। जरा सोचिए, यदि कम्‍प्‍यूटर और सौ साल पहले बन गया होता तो क्‍या हमारे अनपढ़ दादा परदादा इसे चला सकते थे, नहीं न। तो समय से पहले आ जाना भी अपने हित में नहीं है, बल्कि इस दुनियां के हित में भी नहीं है।
खैर, आपके इस जल्‍दी चले आने में गलती किसकी है, इसकी चर्चा न करते हुए आपसे निवेदन है कि इन रचनाओं को संभाल कर रख दें आने वाली पीढि़यों के लिए। आपके रचनाऐं न भेजने से एक लाभ तो हमें होगा कि इन रचनाओं को वापस लौटाने के लिए हमने जो एक स्‍टाफ अलग से रखा है, उसकी आवश्‍यकता नहीं रह जाएगी। एक आदमी का खर्च हमारे लिए अहम् है। दूसरा लाभ समाज को हो सकता है। जितना खर्च आप कविताओं को लिखने में और भेजने में करते हैं, उतना खर्च करने वाले 3-4 लोग और मिल जाएं तो आप लोग गांव में एक छोटा स्‍कूल चला सकते हैं। जिस तरह की क्रांतिकारी विचारों वाली रचनाऐं आप लिखते हैं, उस क्रांति की एक छोटी झलक तो आप अपने जीते जी अपने गांव में ही देख पाएंगे, अपने इस नेक काम से। दूसरे, इस स्‍कूल में जो छात्र तैयार होंगे, उनकी आने वाली पीढि़यां तैयार हो जाएंगी, आपकी इन रचनाओं को समझने के लिए, सौ सवा सौ साल के बाद।
देखिये, एक सम्‍पादक के नाते मेरा कार्य सिर्फ रचनाऐं छापने या लौटाने का ही है, मगर मैं पूरे अपनत्‍व से अपनी ड्यूटी से बाहर जाकर भी आपको इतनी सलाह दे रहा हूं तो इसीलिए कि आप अपना, हमारा और समाज का बहुत भला कर सकते हैं।
ईश्‍वर करे आपका स्‍कूल सफल हो।
अंतिम बार अभिवादन व खेद सहित,
रामेश्‍वर त्‍यागी, संपादक

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